हिंदी और वैज्ञानिक शब्दावली
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली का
कोश तैयार करने का बीड़ा उठाया हुआ है। वर्ष 1961 में संसद में पारित
प्रस्ताव के मुताबिक सभी विषयों के लिए सभी भाषाओं में शब्दावली तैयार की
जाएगी। हर भाषाई क्षेत्र में कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं, जहां भाषा और
विषय के विद्वान एक साथ बैठ कर शब्दों पर बहस करते हैं और शब्दावली बनाते
हैं। ऐसे शब्दकोश को तैयार करने का मकसद क्या होना चाहिए? आज तक चला आ रहा
पुराना सोच यह है कि तकनीकी शब्दावली भाषा को समृद्ध बनाती है। पर इसमें
समस्या यह है कि हमारी भाषाओं में समृद्धि को अक्सर क्लिष्टता और
संस्कृतनिष्ठता का पर्याय मान लिया गया है। इसलिए तकनीकी शब्दावली पूरी तरह
संस्कृतनिष्ठ होती है।
इसके पक्ष में कई तर्क दिए जा सकते हैं। वैज्ञानिक शब्दों में भिन्न
अर्थों की गुंजाइश कम होती है। संस्कृत में व्याकरण और शब्द-निर्माण के
नियमों में विरोधाभास नहीं के बराबर हैं। भाषा जानने वालों को संस्कृत
शब्दों में ध्वन्यात्मक सौंदर्य भी दिखता है। पर विद्वानों की जैसी भी
मुठभेड़ संस्कृत भाषा में होती रही हो, लोक में इसकी कोई विशेष जगह न कभी
थी, और न ही आज है। इस वजह से कोशिश हमेशा यह रहती है कि शब्दों के तत्सम
रूप से अलग सरल तद्भव शब्द बनाए जाएं। कइयों में यह गलत समझ भी है कि
संस्कृत का हर शब्द हिंदी में स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल हो सकता है। इसलिए
विद्वानों में यह संशय पैदा नहीं होता कि शब्दावली क्लिष्ट हो रही है।
सामान्य छात्रों और अध्यापकों को परेशानी झेलनी पड़ती है।
इसके विपरीत, मकसद पर एक समझ यह भी है कि शब्दावली ऐसी हो जो
विज्ञान सीखने में मदद करे और विषय को रुचिकर बनाए। बीसवीं सदी के प्रख्यात
भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन ने अध्यापकों को दिए एक व्याख्यान में समझाया था
कि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, उनको सीखना है, पर पहली जरूरत यह है कि विज्ञान
क्या है, यह समझ में आए। ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं और खासतौर पर हमारे
समाज में जहां व्यापक निरक्षरता और अल्प-शिक्षा की वजह से आधुनिक विज्ञान
एक हौवे की तरह है। इस तरह लोकतंत्र के निर्माण में इन दो प्रवृत्तियों की
अलग राजनीतिक भूमिका दिखती है।
तकरीबन हर भारतीय भाषा में इन दो तरह की समझ में विरोध है। हिंदी
में यह द्वंद्व सबसे अधिक तीखा बन कर आता है। बांग्ला, तेलुगू जैसी दीगर
भाषाओं में उन्नीसवीं सदी तक काफी हद तक संस्कृत शब्दों की आमद हो चुकी थी।
हिंदी में इसके विपरीत, जब से कविता से ब्रजभाषा विलुप्त हुई और खड़ी बोली
हर तरह से मान्य भाषा बन गई, तद्भव शब्द काफी हद तक बचे रहे, पर तत्सम
शब्दों का इस्तेमाल अटपटा लगने लगा। आजादी के बाद कुछ सांप्रदायिक और कुछ
सामान्य पुनरुत्थानवादी सोच के तहत हर क्षेत्र में पाठों में तत्सम शब्द
डाले गए। उस संस्कृतनिष्ठ भाषा को पढ़-लिख कर तीन-चार पीढ़ियां बड़ी हो चुकी
हैं। हिंदी को जबरन संस्कृतनिष्ठ बनाने की यह कोशिश कितनी विफल रही है, यह
हम सब जानते हैं। यह समस्या और गंभीर हो जाती है, जब नए कृत्रिम तत्सम या
तद्भव शब्द बना कर भाषा में डाले जाते हैं।
एक समय था जब लोगों को लगता था कि धीरे-धीरे ये नए कृत्रिम शब्द बोलचाल में
आ जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं है। अब ग्लोबलाइजेशन के दबाव में सरकारों की
जन-विरोधी अंगरेजीपरस्त नीतियों और अन्य कारणों से स्थिति यह है कि भाषाएं
कब तक बचेंगी, यह सवाल हमारे सामने है। ऐसे में गंभीरता से सोचने की जरूरत
है कि इन कोशिशों का मतलब और मकसद क्या हो। अगर हम अपने मकसद में कामयाब
नहीं हैं, तो वैकल्पिक तरीके क्या हों। क्या तत्सम शब्दों के अलावा तकनीकी
शब्दों को ढूंढ़ने का कोई और तरीका भी है।
कुछेक उदाहरणों से बात ज्यादा साफ होगी। रसायन के कोश का पहला शब्द
अंगरेजी के ऐबरेशन शब्द का अनुवाद ‘विपथन’ है। यह शब्द कठिन नहीं है, ‘पथ’
से बना है, जिसे बोलचाल में इस्तेमाल न भी किया जाए, हर कोई समझता है।
‘विपथ’ कम लोगों के समझ आएगा, जैसे मैथिल भाषियों के लिए यह आम शब्द है।
‘विपथन’ हिंदी के अधिकतर अध्यापकों को भी समझ नहीं आएगा, जबकि अंगरेजी में
ऐबरेशन हाई स्कूल पास किसी भी छात्र को समझ में आता है। इसकी जगह अगर
‘भटकना’ से शब्द बनाया गया होता, मसलन ‘भटकन’, तो अधिक लोगों को पल्ले
पड़ता। यहां तर्क यह होता है कि संस्कृत के नियमों के अनुसार ‘विपथन’ से कई
शब्द बन सकते हैं, पर ‘भटकन’ से ऐसा संभव नहीं है। पर क्यों नहीं? ऐसे
पूर्वग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है।
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